अवधी लोकगीतों में वर्णित स्त्री समस्या का अध्ययन
अंशु यादव
मानव की अंतरंग प्रकृति ही लोककलाओं को जन्म देती है। तदान्तर मानव अपने अब तक के उपार्जित संस्कारों से उसे (लोककलारूपों को) युगसंदर्भानुकूल या अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ढालकर अभिव्यक्त करता है। प्रकृति में घटने वाली घटनाओं के प्रति वह बेखबर नहीं रहता है । वह उसे जानना और समझना चाहता है। अगर वह उसे समझ लेता है तो उसे अभिव्यक्त करना चाहता है। यही अभिव्यक्ति लोककलाओं के विभिन्न रूपों में हमें प्राप्त है । लोकसाहित्य में भावाभिव्यक्ति की एक विधा लोकगीत भी है। लोकगीतों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना जा सकता, न ही लोकगीत बिल्कुल काल्पनिक होते हैं । बल्कि उनमें कहीं न कहीं सामाजिक सच्चाई छिपी होती है। लोकगीत की सर्वप्रथम व्युत्पत्ति उस समय हुई, जब समाज अविभक्त और एकात्म स्वरूप में था। जनसमुदाय के बीच उठते कौंधते विचार, विषय एवं अनुभाव का समावेश लोकगीत में होता है। लोकगीत भारतीय लोक संस्कृति का चिरवाहक और प्राणाधार है। लोकगीतों में तत्कालीन सामाजिक जीवन एवं गोचर संस्कृति यथा नगर, ग्राम, समाज, परिवार, पशु-पक्षी, हाट-बाजार, युद्ध-प्रेम, श्रृंगार-करुण, आस्था-अंधविश्वावस तथा शौर्य-पराक्रम का जीवंत व सहज चित्रण हुआ है।
लोकगीत लोकमन की अभिव्यक्ति है इनके मूल में संगीत और नृत्य के तत्व निहित हैं । लोकगीत किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित नहीं होते बल्कि पूरे समाज द्वारा रचे जाते हैं। लोकगीत मानव जीवन में पूरी तरह रच बस गए हैं । लोकगीत लोक-जीवन की मस्ती के परिचायक, जीवन की रसात्मकता, रागात्मकता के उद्गार एवं उमंग का चटक रंग हैं ।
मनुष्य अपने जीवन में सुख-दुख का जो अनुभव करता है, अपने परिवेश प्रकृति में जो कुछ देखता है, उससे सहज रूप से उत्पन्न भावों को वह अपनी वाणी तथा हाव-भाव से व्यक्त करता है । साधारण जन अपने मस्तिष्क और हृदय पर प्रभाव डालने वाली घटनाओं के बारे में गाकर, नाचकर रागात्मक भावनाओं की भाषागत अभिव्यक्ति करता है । लोकगीत लोक जीवन में प्रतिदिन उषाकाल से मध्य रात्रि तक किसी क्रिया से निविर्वाद रूप से जुड़े होकर मनुष्य को स्फूर्ति प्रदान करते हैं । इसलिए लोकगीतों को ‘स्वत: स्फूर्त गीत’ कहा गया हैं ।
समाज अथवा राष्ट्र के उदय में स्त्री और पुरुष का समान महत्व होता है पुरुष यदि घर के बाहर के कार्यों को उन्नत एवं सुचारु रूप से करता है तो स्त्री सेवा एवं स्नेह आदि के साथ घर के विभिन्न कार्यों का निर्वाह करती है स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक है, जीवन में स्त्री एंव पुरूष दोनों चक्रों के समान रूप से चलने पर ही जीवन सुखमय बनता है । समाज में स्त्री के विभिन्न रूप हैं जैसे-पुत्री, पत्नी, माता आदि ।
स्त्री समाज का एक अभिन्न अंग है स्त्री के बिना समाज की कल्पना ही नहीं जा सकती है। स्त्री सर्वदा अपना कार्य कर्तव्य निष्ठा के साथ पूर्ण करती है । स्त्री को उसके सामाजिक अधिकार कभी नहीं मिल पाए हैं। स्त्री चाहे पुत्री, पत्नी, माता के रूप में हो उसके साथ पुत्री होने पर पुत्र के साथ तुलना, पत्नी होने पर परिवार के साथ तुलना तथा माता होने पर ज़िम्मेदारी के नाम पर अमानवीय व्यवहार किया जाता है । यहाँ पर मनु द्वारा कही गई बात सिद्ध होती है कि नारी को बचपन में पिता, जवानी में पति तथा प्रौढ़ावास्था में पुत्रों के संरक्षण में रहना चाहिए। भारतीय समाज की सम्पूर्ण ढांचागत व्यवस्था स्त्री का शोषण करती आ रही हैं। पुरुष अपने आप को बचाने के लिए मनु नाम की चादर ओढ़ना भी नही भूलता है। भारतीय समाज में स्त्री की वेदना, कुंठा, करुणा, पीड़ा, भावनाओं और समस्याओं का व्यापक वर्णन महिलों ने लोकगीतों के माध्यम से भी किया है । अवधी में स्त्री संबंधित अनेक लोकगीत मिलते हैं।
अवधी पूर्वी हिंदी की एक बोली है। यह उत्तर प्रदेश में लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर,बाराबंकी,हरदोई, फतेहपुर,सीतापुर, लखीमपुर, प्रतापगढ़फैजाबाद और आंशिक रूप से मिर्जापुर, जौनपुर, इलाहाबाद आदि जिलों में बोली जाती है। तुलसीदास ने अपने “रामचरितमानस” में अयोध्या को ‘अवधपुरी‘ कहा है। इसी क्षेत्र का पुराना नाम ‘कोसल‘ भी था जिसकी महत्ता प्राचीन काल से चली आ रही है।
अवधी लोकसाहित्य में स्त्री संबंधित लोकगीतों की प्रचुरता है । विषयवस्तु के आधार पर इन गीतों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है – संस्कार गीत, पर्व-त्यौहार के गीत, धार्मिक गीत, ऋतु गीत, जाति गीत, पारंपरिक खेल गीत, राष्ट्रीय गीत, सांस्कृतिक गीत, श्रम गीत, अन्य गीत आदि । इन सभी लोकगीतों में स्त्री की भागीदारी व्यापक स्तर पर मिलती हैं।
अवधी लोकगीतों में स्त्रियों की अनेक समस्याओं का वर्णन मिलता हैं। जैसे- बाल विवाह की समस्या, कन्या भ्रूण हत्या की समस्या, दहेज़ प्रथा की समस्या, बेमेल विवाह की समस्या, सती प्रथा की समस्या, परदा प्रथा की समस्या, सतीत्व परीक्षा, गोदना की प्रथा, बंध्या स्त्री की समस्या और विधवा स्त्री की समस्या इत्यादि ।
बाल विवाह
प्राचीन समय से ही भारत में बाल विवाह का प्रचलन रहा है।
खेलत रहिइउ मैं मइया की गोदिया, खेलत चउंक परीउरे ।
केहिके दुवारे बइया बाजन बाजे, केई के दुआरे क चार रे ।
तुम्हरे दुवारे बेटी बाजन बाजे, तुम्हरे दुवारे का चार रे ।
कन्या भ्रूण हत्या की समस्या
भारतीय समाज में धार्मिक अंधविश्वास, पुरुषात्मकसत्ता, दहेज प्रथा आदि के कारण कन्या भ्रूण हत्या की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं । इसी पीड़ा को अवधी समाज की स्त्रियों ने अवधी लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया है जो इस प्रकार है –
भीतरा से दायज अँगना म गने
कोसय बेटी जनमवां
जनतिउ जो बेटी जनम लेहैं मोरी
डलितिउ मैं कोखिया गिराय रे
मरतिउ जहर विष खाय रे
दहेज प्रथा
भारतीय समाज में दहेज प्रथा एक बहुत बड़ी कुरीति है इसके कारण माता-पिता के लिए लड़कियों का विवाह एक अभिशाप बन गया है । जीवन साथी चुनने का सीमित क्षेत्र बाल-विवाह की अनिवार्यता कुलीन विवाह शिक्षा एंव सामाजिक प्रतिष्ठा, धन का महत्व ,महंगी शिक्षा, सामाजिक प्रथा एंव प्रदर्शन तथा झूठी शान आदि के कारण दहेज लेना और देना आवश्यक हो गया है। दहेज प्रथा के माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह योग्य वर से नही कर पाते । अवधी लोकगीतों में दहेज की समस्या का वर्ण इस प्रकार है कि सुंदर कन्या के अनुरूप योग्य वर न मिलने से पिता निराश होकर उसे कुमारी रहने को कहता है ।
‘वै वर मांगै हाथी से घोड़ा
मांगै मोहरा पचास
वै वर मांगै बेटी नौ लाख दहेज
मोरे बूते दइयो न जाय ।
बंध्या स्त्री की समस्या
भारतीय समाज में जिस स्त्री के कोई बच्चा नहीं होता उसे बंध्या कहा जाता है । इसके साथ-साथ अगर किसी स्त्री के केवल पुत्री हो और उसने किसी पुत्र को जन्म नहीं दिया तो उसे भी लोग बंध्या कहते है और परिवार में उसे तरह-तरह के ताने सुनने पड़ते है । इसके साथ ही उसका पति या तो दूसरी शादी कर लेता है या उसे छोड़ देता है ये भी एक समस्या है जिसे अवधी लोकगीतों के माध्यम से स्त्रियाँ अपनी पीड़ा को व्यक्त करती हैं ।
“सासू मोरी कहे बझिनिया, ननद वृजवासिन,
जेकर बारी वियाहिया वै घरा से निकारे ।
पारिवारिक कलेह
भारतीय समाज हमेशा से सयुंक्त परिवार के रूप में रहता था और संयुक्त परिवार में कभी-कभी पारिवारिक कलेह होते रहते थे । जैसे- सास-बहू कलह, ननद-भोजाई कलह और देवरानी और जेठानी का कलह लेकिन। सामाजिक मर्यादाओं के कारण स्त्री चुपचाप पारिवारिक कलह को सहती रहती है। यहाँ तक अगर कभी पति-पत्नी में किसी बात को लेकर बहस हो जाती थी तो स्त्री यह समझ के चुप हो जाती थी कि पति उसका परमेश्वर है और वह उसके साथ कुछ भी कर सकता है ।
परिवारी कलह की इस समस्या को अवध प्रांत की स्त्रियों ने अवधी लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया है । ननद-भाभी का एक गीत इस प्रकार जिसमें ननद अपनी भाभी को बहुत दुखी करती हैं तो भाभी गीत के माध्यम से व्यथा-कथा व्यक्त करती है –
दुपहरिया से झगरा डालेओ मोरी ननदी
भोरोरे हम बढ़नी से अंगना बहारेन
अँगना मा कूड़ा फइलाएओ मोरी ननदी ।
बेमेल विवाह
बाल विवाह एंव जीवन साथी के चुनाव की स्वतन्त्रता के नहीं होने के कारण कई बार लड़कियों का विवाह अनुपयुक्त लड़कों से करवा दिया जाता है। शिक्षा की असमानता, आदि के कारण उनमें वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाता है और उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री को ही अधिक कष्ट उठाने पड़ते है। अशिक्षा एवं परंपरावादी व्यवस्था के चलते आज भी अनमेल विवाह हो रहे है। अवधी लोकगीतों में बेमेल विवाह (बालिका व वृद्ध का विवाह, बालक व युवती का विवाह आदि) बहु-विवाह प्रथा का मार्मिक अंकन देखने को मिलता है। यथा- इस विवाह गीत में वृद्ध-विवाह का मज़ाक उड़ाया गया है।
बरहै बरिसवा कै मोरि रँगरैली असिया बरसि क दमाद।
निकरि न आवै तू मोरि रँगरैली अजगर ठाढ़ दुवार।।1।।
बाहर किचकिच आँगन किचकिच बुढ़ऊ गिरै मुँह बाय।
सात सखी मिलि बुढ़ऊ उठावैं बुढ़ऊ क सरग दिखाय।।2।।
सतीत्व परीक्षा
प्रवासी पति के लौटने पर सास-ननद की ईर्ष्यामय शिकायत के परिणामस्वरूप कुलवधू को अपने सतीत्व की परीक्षा देनी पड़ती थी । अवधी लोकगीतों में इस परीक्षा का वर्णन मिलता है और स्त्री को अपने सतीत्व की परीक्षा अग्नि, जल, सूर्य या पृथ्वी को साक्षी मानकर शपथ या सतीत्व परीक्षा का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है-
जब बहिनी चली हैं अगिनि किरियवां
खौला तेल भये जुड़ पनिया हो रामा
जब बहिनी चली हैं गंगा किरियवां
गगरी गई है झुराई हो रामा
जब बहिनी चली हैं सुरुजु किरियवां
उगा सुरुजु गए हैं छिपाए हो रामा
जब बहिनी चली हैं धरती किरियवां
धरती म उठा भुंइडोलवा हो रामा