शीर्षक
अनाम ख्वाहिशें
अनगिनत, अनाम ख्वाहिशें
क्यों हैं तुमसे
मुझे नहीं पता!
लेकिन हर रोज ढलते सूरज के बीच
हर रोज निकलते चांद के बीच
कुछ ऐसा होता है
जो होकर भी नहीं दिखता
ठीक वैसा ही एक और आवरण
घिर गया है मन के अन्तर्द्वन्द में
जिसमें सुषुप्त हो चुकी है इच्छाएँ
जो समय समय पर धधक उठती है
और बिखेर देती है अन्तर्प्रलाप
कि तुम सब जानते हुए चुप क्यों हो?
सब देखते हुए अंजान क्यों हो?
सब महसूसते हुए संवेदनहीन क्यों हो?
सब सुनते हुए गूंगे क्यों हो ?
और फिर इतिहास अपनी दशा बताकर
देने लगता है चुनौती कि
‘ख्वाहिशें महत्वाकांक्षा तक पहुंचने की प्रथम सीढ़ी है|’
लेखिका –प्रान्जली शिवहरे
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली
बढ़िया
Pranjali both mst h